सहिष्णुता और असहिष्णुता-देवनूरु महादेव

 

 

सहिष्णुता-असहिष्णुता आज के “मुझे मत छूओ” शब्द बन गये हैं। शुद्धता को अछूतपन से जोड़ कर भारत आधे जीवित और आधे मृत लोगों का देश बनकर रह गया है। अतः कम बोलने में ही सुरक्षा है। मैं स्वयं भी समझने का प्रयास कर रहा हूँ। आज के प्रचलित असहिष्णु आचरण को समझे बिना, सहिष्णुता को समझा नहीं जा सकता। उदाहरण के लिए ‘प्रजावाणी’  ने अपने जून ८, २०१६ के अंक में एक समाचार छापा कि मैसूर विश्वविद्यालय के दलित छात्रों ने विरोध में राम बहादुर राय का पुतला जलाया। राम बहादुर राय आर. एस. एस. में गहरी जड़ें रखने वाला एक पत्रकार है। उसने आउटलुक पत्रिका को दिए गए साक्षात्कार के दौरान कहा कि डा. अम्बेडकर ने संविधान नहीं लिखा था। उन्होंने तो मात्र उसका संपादन तथा अनुवाद किया था। दलित छात्रों का यह विरोध उसका ही परिणाम था।

इस उदाहरण में सहिष्णुता क्या है तथा असहिष्णुता क्या? क्या ऐसा विश्वास रखना असहिष्णुता नहीं है कि मनुस्मिृति के सिद्धांत वास्तविक संविधान है। यह एक बेचैनी पैदा करने वाली बात है क्योंकि हमें तो याद है कि डा. अम्बेडकर नें संविधान की रचना की थी? मेरे मुताबिक़ आर. एस. एस. के राम बहादुर का बयान असहिष्णुता है और दलित छात्रों की प्रतिक्रिया मात्र रोष। कुछ और स्पष्टीकरण देने के लिए, एस. एन. बालगंगाधर का लेख ‘भारत में आज कौन सी असहिष्णुता का प्रचार है’ पढ़ना काफ़ी होगा।

उनके ही शब्दों में उनके द्वारा दिए गए उदाहरण :
“वेंकट जो मानसिक रूप से अस्थिर था और जिसे लोग पागल वेंकट कहकर पुकारते थे, एक लोकप्रिय टेलीविज़न कार्यक्रम में अम्बेडकर के प्रति उपेक्षापूर्ण हो उठा। उसने अम्बेडकर को अपनी पांव की जूती बोल दिया, परन्तु कोई भी समाचारपत्र उसके इन शब्दों को दोहराने की हिम्मत न कर सका। उन्होंने समाचार में बस इतना ही उल्लेख किया कि वेंकट ने अम्बेडकर के लिए बहुत ही अपमानजनक तथा निन्दात्मक शब्दों का प्रयोग किया था। यह बात पूर्णतयः अस्पष्ट है कि किसी व्यक्ति के लिए अपशब्द तथा अनादरपूर्ण शब्दों का प्रयोग क्यों नहीं किया जा सकता। भारतीय बोल-चाल की भाषाओं की यही तो विशिष्टता है कि वह किसी के प्रति भी निंदापूर्ण हो सकती हैं, यहाँ तक कि ईश्वर के प्रति भी। क्या अम्बेडकर भारत के देवी-देवताओं से भी अधिक महान हैं? बंगलौर में अम्बेडकर के अनुयायीओं ने वेंकट की उस अभ्युक्ति के लिए उसकी कार को घेर लिया, उसको मारा-पीटा और उसके मुख पर काला तारकोल पोत दिया।”

 

यह लिखने के बाद वह दूसरा उदाहरण देते हैं:
“अभी हाल में ही हैदराबाद में आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में मैंने अम्बेडकर को बौद्धिक रूप से मानने से इनकार कर दिया और उन्हें एक मूर्ख व्यक्ति कहा। इस गाली (मेरे शब्द को ऐसा ही लिया गया) को लेकर भारत में अम्बेडकर के अनुयायीओं ने मेरे विरुद्ध मुहिम खड़ी कर दी है। यह दो घटनाएं यह बताती हैं कि यदि कोई अम्बेडकर की आलोचना करने की धृष्टता कर बैठे, तो अम्बेडकर के अनुयायी उस के प्रति बहुत ही असहनशील हो जाते हैं।”

डाँट लगाने वाले भारद्वाज एस. एन. बालगंगाधर का बड़बड़ाना इसी तरह चालू रहता है।
चलो जाने दो। पागल वेंकट ने भावावेश में अशिष्ट शब्द का प्रयोग किया … वह नेकदिल था। उसने बाद में क्षमा भी माँगी। परन्तु आईए पागल बालगंगाधर के उस वक्तव्य पर गौर करें जिसमें वह चिढ़ाते हुए कहते हैं कि उन्हें सचमुच में इस बात का बहुत खेद है कि उन्होंने अम्बेडकर के लिए मूर्ख शब्द का प्रयोग किया। उन्हें तो कहना चाहिए था “उनके सामने तो आलिया भट्ट की प्रवीणता भी फीकी पड़ जाती है”। हैदराबाद सम्मेलन में उन्होंने यह भी कहा कि यह उनकी समझ के बाहर है कि कोलम्बिया विश्वविद्यालय ने अम्बेडकर जैसे मूर्ख को डॉक्टरेट की डिग्री कैसे प्रदान कर दी।  इसे हम कैसे समझ पाएँ? इनमें से क्या है जो असहिष्णुता है?

एक और उदाहरण –  मैसूर के पास के एक गाँव उड्बूरु में पिछड़ी जाति एवं दलितों के बीच झगड़ा हो गया। शायद एक दलित लड़के को दूसरी जाति की लड़की से प्रेम हो गया था या फिर वह उसे छेड़ बैठा था। जब हो-हल्ला शुरू हुआ तो पिछड़ी जाति के लोगों ने दलित के घर की तलाशी ली और न जाने कितनी चीज़ों को तोड़-फोड़ डाला जैसे टेलीविज़न, स्कूटर, घड़ी तथा इसी तरह की अन्य चीज़ें जो हमारी आँखों में चकाचौंध पैदा करती हैं। यहाँ पर क्या दलित लड़के का एक लड़की के लिए प्रेम असहिष्णुता का कारण है या फिर यह कि उनकी जीवन शैली पिछड़ी जाति वालों के बराबर थी या उनसे बेहतर। क्या राम बहादुर राय तथा प्रोफ़ेसर पागल बालगंगाधर एक ही तरह के लोग नहीं हैं?

 

निरीक्षण करने पर हम पाते हैं कि असहिष्णुता की प्रेतछाया हमारी वर्ण व्यवस्था के भीतर निहित है। यह एक सनातन उपनिवेशवाद है। इस प्रेतछाया ने एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था में जो सतर्क नहीं है भयंकर असमता को ग्रहणीय बना दिया है। भारतीय वर्ण व्यवस्था और कुछ नहीं बल्कि अप्रत्यक्ष असहिष्णुता है। जब बलि का बकरा जाग उठता है, तब हमें खलबली नज़र आती है। भारतीय वर्ण व्यवस्था में जो परंपरागत संबंध हैं वह एक निर्दयी प्राणी और पालतू जानवर के बीच का संबंध है जिसका सहज होना सम्भव नहीं। वर्ण व्यवस्था के शिकार यदि जाग उठें तो वह संबंध एक तेंदुए और अमानवीय प्राणी के संबंध सरीखे बन जाते हैं। तब हम देखते हैं आंदोलन एवं टकराव। यह असहिष्णुता नहीं है। यह तो उस असहिष्णुता के विरुद्ध विद्रोह है जो प्रबुद्ध सामाजिक अनुशासन का अनिवार्य अंग है।

हमें तो वह संबंध चाहिए जो मानव और मानव के बीच हो। एक ऐसा संबंध जो समानता और एक दूसरे के लिए सम्मान की नींव पर खड़ा हो। उसके लिए इतना पर्याप्त है कि हम हर दिन पाँच मिनट के लिए इस पर चिन्तन करें कि हमारा जन्म किसी और जाति में हुआ है। यदि हम इस पर मनन करें कि हम एक दलित अथवा एक नारी हैं तब हमें प्रत्यक्ष हो जाएगा कि कौन सहिष्णु है। सहिष्णुता परिर्वतन के बीज अंकुरित करेगी।

जूलाई ४, २०१६ को बेसगरहल्ळि रामण्ण पुरस्कार समारोह के अवसर पर दी गई वार्ता सहिष्णुतेगागि ओन्दिष्टु कोप-ताप का मोहन वर्मा द्वारा कन्नड़ से अनुवाद।

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देवनुरु महदेवा ने पिछले वर्ष बढ़ती  हुई असहिष्णुता के विरोध में, अपना पदमश्री और साहित्य अकादमी सम्मान वापस कर दिया था वह कर्नाटक में युवा एक्टिविस्ट के बीच में काफी सम्मानित बुद्धिजीवी  और एक प्रेरणाश्रोत व्यक्तित्व के रूप में जाने जाते है । उनके साहित्य अकादमी से पुरस्कृत उपन्यास “कुसुमा बाले “ का अंग्रेजी अनुवाद ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस द्वारा प्रकाशित हो चूका है ।

यह लेख पहले कन्नड़ में  प्रकाशित हुआ था , इसका अंग्रेजी अनुवाद Round Table India में प्रकाशित हुआ था